चाणक्य नीति

चाणक्य : एक संक्षिप्त परिचय

प्राचीन भारतीय संस्कृत वाङ्गमय के इतिहास में आचार्य विष्णुगुप्त चाणक्य अपने गुणों से मंडित, राजनीति विशारद, आचार-विचार के मर्मज्ञ, कूटनीति में सिद्धहस्त एवं प्रवीण रूप में ख्यातनाम हैं। उन्होंने नन्द वंश को समूल नष्ट कर उसके स्थान पर अपने सुयोग्य एवं मेधावी वीर शिष्य चन्द्रगुप्त मौर्य को शासक पद पर सिंहासनारूढ़ करके अपनी जिस ‘ विलक्षण प्रतिभा का परिचय दिया उससे समस्त विश्व परिचित है। मौर्यवंश की स्थापना आचार्य चाणक्य की एक महती उपलब्धि है।

यह वह समय था जब मौर्यकाल के प्रथम सिंहासनारूढ़ चंद्रगुप्त मौर्य शासक थे। उस समय चाणक्य राजनीति गुरु थे। आज भी कुशल राजनीति विशारद को चाणक्य की संज्ञा दी जाती है। चाणक्य ने संगठित, संपूर्ण आर्यावर्त का स्वप्न देखा था तद‌नुरूप उन्होंने सफल प्रयास किया था।

चाणक्य अनोखे, अद्भुत, निराले, ऐसे कुशल राजनीतिज्ञ थे कि उन्होंने मगध देश के नंद राजाओं की राजसत्ता का सर्वनाश करके ‘मौर्य राज्य’ की स्थापना की थी।

चाणक्य का जन्म का नाम विष्णुगुप्त था और चणक नामक आचार्य के पुत्र होने के कारण इनका नाम चाणक्य पड़ा। कुछ लोगों का मत है कि अत्यंत कुशाग्र बुद्धि होने के कारण वह ‘चाणक्य’ कहलाए। कुटिल राजनीति विशारद होने के कारण इन्हें कौटिल्य नाम से भी संबोधित किया गया। पर संभवतः यह इनके गोत्र का नाम रहा हो किन्तु अनेक विद्वानों के मतानुसार कुटिल नीति के निर्माता होने के कारण इनका नाम कौटिल्य पड़ा। म०म० गणपति शास्त्री ने ‘कुटिल’ गोत्रोत्पन्न पुमान् कौटिल्य: इस व्युत्पत्ति के अनुसार इन्हें कौटिल्य गोत्र का मानने पर बल दिया है। आप चंद्रगुप्त मौर्य के महामंत्री, गुरु, हितैषी तथा राज्य के संस्थापक थे। चंद्रगुप्त मौर्य को राजा पद पर प्रतिष्ठित करने का कार्य इन्हीं के बुद्धि-कौशल का परिणाम था।

विपत्ति में क्या करें-

विपत्ति के समय के लिए धन की रक्षा करनी चाहिए। धन से अधिक रक्षा पत्नी की करनी चाहिए। किन्तु अपनी रक्षा का प्रश्न सम्मुख आने पर धन और पत्नी का बलिदान भी करना पड़े तो भी नहीं चूकना चाहिए।

संकट, दुःख में धन ही मनुष्य के काम आता है। अतः ऐसे संकट के समय में संचित धन ही काम आता है इसलिए मनुष्य को धन की रक्षा करनी चाहिए। पत्नी धन से भी बढ़कर है, अतः उसकी रक्षा धन से भी पहले करनी चाहिए। किन्तु धन एवं पत्नी से पहले तथा इन दोनों से बढ़कर अपनी रक्षा करनी चाहिए। अपनी रक्षा होने पर इनकी तथा अन्य सबकी भी रक्षा की जा सकती है।

आचार्य चाणक्य धन के महत्त्व को कम नहीं करते क्योंकि धन से व्यक्ति के अनेक कार्य सधते हैं किन्तु परिवार की भद्र महिला, स्त्री अथवा पत्नी के जीवन-सम्मान का प्रश्न सम्मुख आ जाने पर धन की परवाह नहीं करनी चाहिए। परिवार की मान-मर्यादा से ही व्यक्ति की अपनी मान-मर्यादा है। वही चली गई तो जीवन किस काम का और वह धन किस काम का ? पर जब व्यक्ति की स्वयं की जान पर बन आवे तो क्या धन, क्या स्त्री, सभी की चिन्ता छोड़ व्यक्ति को अपने जीवन की रक्षा करनी चाहिए। वह रहेगा तो ही पत्नी अथवा धन का उपभोग कर सकेगा वरना सब व्यर्थ ही रह जाएगा। राजपूत स्त्रियों ने जब यह अनुभव किया कि राज्य की रक्षा कर पाना या उसे बचा पाना असंभव हो गया तो उन्होंने जौहर व्रत * का पालन किया और अपने प्राणों की आहुति दे दी। यही जीवन का धर्म है।

परख समय पर होती है-

जानीयात्प्रेषणेभृत्यान् बान्धवान्व्यसनाऽऽगमे ।

मित्रं याऽऽपत्तिकालेषु भार्या च विभवक्षये ॥

आचार्य चाणक्य समय आने पर संबंधियों की परीक्षा के संदर्भ में कहते हैं-किसी महत्त्वपूर्ण कार्य पर भेजते समय सेवक की पहचान होती है। दुःख के समय में बन्धु-बान्धवों की, विपत्ति के समय मित्र की तथा धन नष्ट हो जाने पर पत्नी की परीक्षा होती है।

यदि किसी विशेष अवसर पर सेवक को कहीं किसी विशेष कार्य से भेजा जाए तभी, उसकी ईमानदारी आदि की परीक्षा होती है। रोग या विपत्ति में ही सगे-सम्बन्धियों तथा मित्रों की पहचान होती है और गरीबी में, धनाभाव में पत्नी की परीक्षा होती है।

सभी जानते हैं कि मनुष्य सामाजिक प्राणी है। वह अकेला नहीं रह सकता। उसे अपने हर काम को करने में सहायक, मित्र, बन्धु, सखा और परिजनों की आवश्यकता होती है किन्तु किसी भी कारणवश उसके ये सहायक उसकी जीवन-यात्रा में समय पर सहायक नहीं होते तो उस व्यक्ति का जीवन निष्फल हो जाता है। अतः सही सेवक वही जो असमय आने पर सहायक होवे। मित्र, सखा व वन्धु वही भला जो आपत्ति के समय सहायक हो, व्यसनों से मुक्ति दिलानेवाला हो और पत्नी वही सहायिका और असली जीवन-संगिनी है जो धनाभाव में भी पति का सदैव साथ दे। ऐसा न होने पर इनका होना बेकार है।

विवाह समान में ही शोभा देता है-

वरयेत्कुलजां प्राज्ञो निरूपामपि कन्यकाम् । रूपवतीं न नीचस्य विवाहः सदृशे कुले ॥

आचार्य चाणक्य विवाह के सन्दर्भ में रूप और कुल में श्रेष्ठता कुल को देते हुए कहते हैं कि बुद्धिमान मनुष्य को चाहिए कि वह रूपवती न होने पर भी कुलीन कन्या से विवाह कर ले, किन्तु नीच कुल की कन्या यदि रूपवती तथा सुशील भी हो, तो उससे विवाह न करे। क्योंकि विवाह समान कुल में ही करना चाहिए।

(विवाह के लिए वर और वधू, दोनों का घराना समान स्तर का होना चाहिए। बुद्धिमान मनुष्य को अपने समान कुल की कन्या से ही विवाह करना चाहिए। चाहे कन्या साधारण रूप-रंग की ही क्यों न हो, निम्न कुल की कन्या यदि सुन्दर और सुशील भी हो, तो उससे विवाह नहीं करना चाहिए।)

गरुड़ पुराण में भी यह श्लोक किंचित् पाठभेद से मिलता है। उसमें भी कहा गया है कि ‘समान कुलव्यसने च सख्यम्’ अर्थात् मित्रता एवं विवाह समान में ही शोभा देता है। विजातीय अथवा असमान (बेमेल विवाह) में अनेक कष्ट आते हैं। अनेक समस्याएं पैदा हो जाती हैं। यद्यपि मनुस्मृति में प्रतिकूल विवाह का भी विधान है लेकिन देखने में यही आता है कि असमान विवाह अनेक कारणों से असफल ही हो जाते हैं या उनका परिणाम सुखद नहीं रह पाता। इसलिए जीवन के सन्दर्भ में विवाह जैसे महत्त्वपूर्ण प्रश्न को भावुकता का शिकार बनने से रोकना ही नीतिसंगत है।

स्त्रियों के स्वाभाविक दोष-

अनृतं साहसं माया मूर्खत्वमतिलोभिता। अशौचत्वं निर्दयत्वं स्त्रीणां दोषाः स्वभावजाः ॥

यहां आचार्य चाणक्य स्त्रियों के स्वभाव पर टिप्पणी करते हुए यह कह रहे हैं कि झूठ बोलना, साहस, छल-कपट, मूर्खता, अत्यन्त लोभ, अपवित्रता और निर्दयता-ये स्त्रियों के स्वाभाविक दोष हैं। अर्थात् स्त्रियों में यह प्रवृत्ति जन्म से ही होती है। वे अपने दुःसाहस में कोई भी ऐसा काम कर सकती हैं जिस पर भरोसा नहीं किया जा सकता।

आचार्य चाणक्य ने यहां नारी के स्वभाव का वर्णन किया है और मानते हैं कि सृष्टि की रचना में नारी का अक्षुण्ण योगदान है। लेकिन जहाँ स्वभाव का प्रश्न है वहाँ ये दोष भी पाये जाते हैं। इसका अर्थ यह नहीं कि नारी बुद्धिमान् नहीं होती। आद्य शङ्कराचार्य ने प्रश्नोत्तरी में उल्लिखित किया है कि ‘द्वारं किमेकं नरकस्य नारी’ अर्थात् नरक का प्रधान द्वार या एकमात्र द्वार के रूप में नारी को उद्धृत किया है। तुलसीदास ने कहा है कि ‘नारि स्वभाव सत्य कवि कहहीं, अवगुण आठ सदा उर रहहीं।’ इन आठ अवगुणों में इसी श्लोक में गिनाये नामों का अनुवाद किया है। साथ ही सामान्य नियम को विशेष नियम प्रभावित करते रहते हैं क्योंकि नारी ममता, दया, क्षमा आदि का एकमात्र स्थान है। इसके बिना सृष्टि ही अधूरी है। अतः सीता, राधा, जीजाबाई, लक्ष्मीबाई आदि में अवगुण ढूँढ़ना अपनी अविवेकिता है। ये तो नारी के आदर्श हैं और आचार्य चाणक्य ने स्त्रियों के जिन दोषों की ऊपर चर्चा की है वे स्वाभाविक वृत्तियां हैं। आवश्यक नहीं कि ये सभी स्त्रियों में पाई जाएं।

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